विकास की आड़ में उजड़ती जड़ें: एक बाग महुआ का जो सिर्फ़ पेड़ों का नहीं, हमारी विरासत का था हमारी संवेदना और हमारी भावना का दर्पण था, हमारे बचपन का साथी हमारी कोमल हृदय का हमारे दुख सुख का धूप छांव thà जब कोई अपनी मिट्टी से बिछड़ता है, तो सिर्फ़ जगह नहीं बदलती, उसके साथ उसकी पहचान, उसकी विरासत और उसकी आत्मा भी दर-बदर हो जाती है। यह कहानी सिर्फ़ एक इंसान की नहीं, बल्कि उस पीढ़ी-दर-पीढ़ी संजोई गई धरोहर की है, जो कभी हरी-भरी थी, मगर अब सिर्फ़ यादों में बची है। एक सफर, जो बेघर कर गया सालों पहले राजा जयचंद जी के वंशज, आमिरे चौहान ने अपने पूर्वजों की धरती ग्राम फूटा सराय जिला फतेहपुर छोड़ी थी। परिस्थितियों ने उन्हें अपना वतन, अपनी पहचान बदलने पर मजबूर कर दिया। अपने ही घर से पराया कर दिया गया यह इंसान, एक नई जगह पर आकर बसा। उसने सिर्फ़ एक नया ठिकाना नहीं बनाया, बल्कि अपनी मेहनत और संघर्ष से उस मिट्टी में नई जड़ें बोईं। ग्राम रसूलाबाद कोयलाहा, और वहाँ से धावा बरा, यही वो जगह थी, जहाँ उन्होंने अपना जीवन फिर से बसाया। उन परिंदों की तरह, जो तूफ़ान में घोंसले उजड़ने के बाद फिर से तिनका-तिनका जोड़कर एक नई दुनिया बनाते हैं। उन्होंने यहाँ ज़मीन खरीदी और अपने पुत्र अब्दुला के साथ मिल कर, उस पर अपनी मेहनत का पसीना बहाया और महुआ से उमा प्रेम अलग ही कहानी कहता है कोइलहा में 6 बीघे का बाग लगाया जो अभी भी कायम है, और महुआ एक बाग धावा बरा में लगाया पेड़ो से प्रेम की—एक ऐसी विरासत, जो आने वाली सात पीढ़ियों तक उनके परिवार का सहारा बनी। वो बाग, जो सिर्फ़ पेड़ों का झुंड नहीं था हमारे परिवार का हिस्सा था, पारिवारिक स्नेह का जुड़ाव था परम्परा थी और अपनो की यादों का खजाना था, महुआ के पेड़ सिर्फ़ लकड़ी नहीं देते, वे जीवन देते हैं। उनकी मीठी सुगंध, उन पर खेलते बच्चे, उनकी छाँव में बिताए अनगिनत दिन—ये सिर्फ़ यादें नहीं, बल्कि आत्मा का एक हिस्सा थे। यह बाग पीढ़ियों की मेहनत की गवाही देता था। लेकिन यह कैसी विडंबना है कि जिस ज़मीन को सात पीढ़ियों से संभाला, जिस बाग को खून-पसीने से सींचा, उसे सरकारी तंत्र की एक लिपिकीय त्रुटि ने बंजर घोषित कर दिया। और फिर, एक दिन आदेश आया—सरकार ने अधिग्रहण कर लिया। आदेश आया पेड़ो को काट दो और फिर पेड़ो को काटा जाने लगा उनकी निर्मम हत्या, और पेड़ों के साथ जड़ें भी उखड़ गईं फिर वो दिन भी आया जब पेड़ों की कटी हुई शाखाएँ, ज़मीन पर बिखरी जड़ें और सन्नाटे में गूंजती कुल्हाड़ी की आवाज़ और चीखते विलाप करते पेड़ो का क्रंदन इस बात की गवाही दे रही थी कि इंसान कितना निष्ठुर कितना क्रूर हो सकता है।कितना असंवेदनशील हो सकता है। महुआ के वो हरे-भरे पेड़, जो कभी जीवन का प्रतीक थे, सरकार के आदेश पर जड़ से काट दिए गए। बाग, जो कभी हरियाली से भरा था, अब वीरान पड़ा था—बंजर, सूखा, और उदास। विकास जरूरी है, मगर क्या विकास का मतलब अपनी जड़ों को काट देना होता है? क्या एक त्रुटि, एक सरकारी दस्तावेज़ की गलती, सात पीढ़ियों की मेहनत से बड़ा हो सकती है? वो दर्द, जो शब्दों में नहीं समा सकता पेड़ कटे, लेकिन सिर्फ़ पेड़ नहीं कटे—हमारी जड़ें कट गईं, हमारी पहचान कट गई, हमारी विरासत कट गई। और सबसे दुखद यह कि न्याय कहीं नहीं मिला। आज जब हम उस जगह से गुजरते हैं, तो वहाँ सिर्फ़ वीरानगी दिखती है। मगर हमारे दिलों में वो बाग अभी भी हरा-भरा है। वो महुआ के पेड़, जो अब ज़मीन पर नहीं हैं, हमारी यादों में अब भी लहलहा रहे हैं। क्या कोई जवाब देगा? सरकारें बदलती रहीं, लेकिन उस अन्याय का जवाब किसी ने नहीं दिया। क्या हम सिर्फ़ कागजों में दर्ज नाम हैं, जिनका अस्तित्व कभी भी मिटाया जा सकता है? क्या हमारी मेहनत और हमारी धरोहर का कोई मूल्य नहीं? ये एक भयानक अपराध है मगर इसका जवाब कोई नहीं देगा,, आज भी जब हवा चलती है, तो ऐसा लगता है मानो कटे हुए महुआ के पेड़ अपनी आह भर रहे हों। वे हमसे सवाल कर रहे हैं— "क्या कभी हमें वापस हमारी जड़ें मिलेंगी?" शायद नहीं… लेकिन हमारी यादों में वो बाग हमेशा जिंदा रहेगा।
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